Boy in a strange city

Things that are, things that were and things that will be


वेतन

भोर फटने वाली थी। पर नन्ही मीरा आज सुबह के पहले ही जाग गयी थी, आज का दिन खास था। पक्षी भी मनो आज की सुबह के लिए आतुर थे।

सात  साल  की मीरा बेचैनी से १० बजने का इंतज़ार करने लगी।  बात ये थी की सुबह १० बजे ही पास वाले लाला की दुकान खुलती थी। वो दुकान जहा हर तरह की रंग बिरंगी मिठाई और बिस्कुट मिलती थी। बस यही खूबी नहीं थी लाला की दूकान की , लाला कुछ एक दो खिलौने भी रखता था। इन्ही में से एक खिलौने पे मीरा का मन  आ गया था।  वो पिछले २ महीनो से अपने छोटे गुल्लक में पैसे जोड़ रही थी खिलौने के लिए। ।  मीरा को दादी के पैर दबाने और माँ के लिए छुटपुट सामान लेन में जो बख्शीश मिलती वही उसकी आय थी।  कोई मेहमान जब भी मीरा को कुछ भी पैसे देने लगता, मीरा की माँ झटपट उन्हें नकार देती। बूँद बूँद से घड़ा भरने में समय लगता है और मीरा को  उसे डर भी सताता था की कही लाला वो खिलौना किसी और को न बेच दे।  सो हर शाम मीरा लाला की दुकान की तफ्शीस कर आती थी, ये देखने की कही उसका खिलौना बिक तोह नहीं गया।

पर आज मीरा ने पैसे जोड़ लिए थे, कल रात को दादी ने उसे पुरे १० रूपए दिए।  मीरा देहलीज़ पे बैठी इंतज़ार कर रही थी, की तभी माँ ने आवाज़ दे के मीरा से पापा के जूते साफ़ करने को कहा। मीरा की तोह छुट्टियां चल रही थी, पर उसके पापा को अब भी दफ्तर जाना होता था। तोह मीरा लग गयी, थोड़े पैसे ज्यादा मिल जायेंगे तोह कुछ बुरा नहीं। मीरा शांत थी की तभी उसके कानों में पापा की आवाज़ पड़ी।

“इस महीने भी वेतन  मिलना मुश्किल है”

“क्यों जी?” मीरा की माँ ने चिंता भरे स्वर में’ पूछा।

“कम्पनी को बड़ा घटा हुआ है , कई लोगों की तो नौकरी चली गयी। ऐसे में बड़े साहब से वेतन की बात करना सही नहीं मालूम पड़ता” ये कह कर मीरा के पापा रुक गए।  उन्हें लगा की उन्होंने ने ज़्यदा ही बोल दिया। मीरा की माँ  को घर की चिंता कोई कम थी की अब वह वेतन की भी चिंता करे।

“पर तुम चिंता मत करो, वेतन मिल जायेगा ” पापा ने दिलासा देना चाहा, पर अपनी आवाज़ की मायूसियत वो नहीं छुपा सके।

मीरा भी ये मयूसियत भाप गयी , पर उसे पता नहीं था की क्या बोला जाये।  वो तोह ये भी नहीं जानती थी की वेतन होता क्या है।मीरा को जब कुछ नहीं सूझा तोह उसने निर्णय लिया की वो दादी से वेतन  के बारे में पूछेगी ।

अभी दादी मंदिर गयी थी’, तोह उनके आने में थोड़ी देर थी।  ऐसा नहीं है की मंदिर दूर था, बात ये थी की दादी बड़ा ही आहिस्ता आहिस्ता कदम बढाती थी जिसके कारण  १० मिनट का रास्ता दादी २० मिनट में तय करती थी।   

दादी के आते ही मीरा  ने उनपे सवालों की बारिश कर दी।  दादी को भी अब इसकी आदत थी, मीरा अपने उम्र के बच्चों से कही ज़्यदा जिज्ञासु थी।

“दादी वेतन क्या होता है?”

दादी ने एक पल को सोचा भला ये नन्ही जान इतना भारी भरकम शब्द कहाँ से सीख कर आयी, फिर उन्हें याद आया की मीरा कभी कभी तुतलाती थी। बेचारी स को त बोलती थी  और कुछ दिन पहले ही तंतरे  खाने की ज़िद कर चुकी थी। दादी की उम्र भी हो चली थी, शरीर कमजोर हो गया था, किसी से भी गप्पे मारने हो  तोह कान में बड़ा ज़ोर पड़ता था ।

 दादी ने हसंते हुए कहा “बेतन  वो होता है जिससे लड्डू बनते है”

“क्या पापा को लड्डू पसंद है ?” मीरा ने सवाल किया।

“अरे तेरे पापा तोह बचपन में रसोई से चुरा चुरा के लड्डू खाते थे, बहुत नटखट थे”I

ये जान की उसके पापा भी बदमाशियां करते थे उससे रहा न गया और मीरा खिलखिला पड़ी।

अब मीरा को बात समझ आ गयी थी, पापा वेतन  के लड्डू न खाने के कारण मायूस थे। पापा बड़े साहब के लिए काम करते थे , ज़रूर उन्ही ने पापा को लड्डू खाने से रोका होगा।

“कहा मिलेगा वेतन?”

“अरे सब जगह, अपने घर के पास वाला लाला भी रखता है” दादी के ये कहते ही मीरा को समय का ध्यान आया।

बातों बातों में दस कब बज गए पता ही नहीं चला , मीरा ने जल्द ही अपना गुल्लक तोड़ दिया और पैसे निकल कर गिनने लगी। पुरे ६० रूपए थे।  जो अभी के लिए काफी थे। मीरा दौड़ती हुयी लाला की दूकान पर पहुंची।  

“आ गयी शैतान , चिंता न कर तेरा खिलौना अभी यही है “

“लड्डू है ?” मीरा ने लाला को अनसुना सा कर दिया

“कौन से लड्डू ?” लाला ने पूछा

“वेतन  वाले”

लाला का भी सर चकराया, कुछ देर सोचने के बाद भी उसने भी वही तर्क लगया जो दादी ने लगाया था। वो समझा की ये तुतलाती ज़ुबान बेसन के लड्डू को पूछ रही थी

“हाँ है, कितने लेगी”?

“६० रूपए में जितने आएंगे”

ये बचकाना दाम सुन लाला भी मुस्कुरा दिया

“१० लड्डू आएंगे ६० रूपए में “

मीरा ने मन ही मन सोचा अभी के लिए १० काफी है, उसने लाला को पैसे दिए और थैली में लड्डू लिए घर को चल दी।  जाने के पहले उसने अपने पसंदीदा खिलौने को एक  बार निहारा  पर फिर खुद को समझाया लालच करना बुरा होता है।  ऐसा दादी कहा करती है और दादी झूठ नहीं बोलती।

मीरा घर गयी और पापा के दफ्तर से लौटने का इंतज़ार करने लगी।  शाम को पापा जब  दफ्तर से लौट कर, चाय पी  रहे थे तोह मीरा जा कर उनके बगल में बैठ गयी। उसने पापा के कुर्ते की बाज़ू खीँच कर उनका ध्यान अपने तरफ खींचा I

“क्या हुआ बेटा?”

“ये लीजिये ” कह कर मीरा ने अपने नन्हे हाथों से वो लड्डू की थैली पापा को दे दी

“ये क्या है?”  पापा ने आश्चर्यता से पूछा

“वेतन  के लड्डू “

पापा ने थैली खोल कर देखा तोह उसमे  बेसन के लड्डू थे

“ये कहा से लायी? माँ ने  मंगवाया?”

“नहीं तोह, ये तोह मैं लाला की दूकान से लायी”

तब तक माँ भी आ चुकी थी

“तू बहुत जाने लगी है दुकान ” माँ ने डांटा

“पैसे कहा से मिले बेटा तुमको?” पापा ने माँ को शांत करते हुए मीरा से पूछा

“गुल्लक से”

पापा को बात कुछ जमी नहीं, मीरा भी ये बूझ गयी।  इससे पहले की माँ  फिर डांटे, मीरा ने सोचा की सब सच बता देना चाहिए।

“आप ही तोह सुबह कह  रहे थे की वेतन नहीं मिला, तोह मैं लाला की दुकान से ले आयी दादी से पूछ कर”

ये सुनते ही पापा दंग रह गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था।  माँ भी अब चुप थी। पापा ने मन ही मन सोचा की , न जाने कब उनकी बेटी इतनी बड़ी हो  गयी की अब उनकी परवाह करने लगी।  गलती दरअसल बड़ों की है, कभी कभी हम ही ये भूल जाते है की हमारे बच्चे कितने सयाने हो गए है।  ये सब सोच कर पापा फूट फूट कर रोने लगे और मीरा को गले से लगा लिया।



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