This is a work of fiction
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दो दोस्त थे―एक थोड़ा शांत था, एक थोड़ा चंचल।
आज वर्षों बाद राम घर लौट रहा था। आठवीं कक्षा के बाद पढ़ने के लिए वह अपने शहर से दूर अपने चाचा के पास रहने चला गया था। एक बार जो शहर गया तो गाँव कम ही आना जाना होता था। कभी छुट्टियाँ हुईं तो दोस्तों के साथ घूमने निकल गए, नहीं तो परिवार वालों को अपने पास बुला लिया। राम के परिवार वाले भी शहर जा कर ख़रीददारी करने को आतुर रहते। बस इसी सिलसिले में आठ वर्ष कब गुज़र गए पता ही नहीं चला।
राम की नई-नई सरकारी नौकरी लगी थी और इतने दिन घर से दूर रहने के बाद उसे भी अब घर की याद सता रही थी। बस फिर क्या था, पहली छुट्टी मिलते ही राम ने घर जाने का फैसला कर लिया। ट्रेन में बैठे हुए उसने २ भाइयों को मिठाई के लिए लड़ते देखा। ये देख उसे अब्दुल की याद आयी, लगा की मानो एक अरसा बीत गया हो अब्दुल से मिले हुए। अब्दुल के अब्बा की छोटी सी खुरचन की दुकान थी। जहाँ राम और अब्दुल हर दिन स्कूल के बाद पहुँच जाते थे। अब्दुल के अब्बा राम को प्यार से रामु कहते। नन्हा राम कभी समझा नहीं कि ‘उ’ की मात्रा भर लगा देने से नाम प्यार भरा कैसे हो जाता है, पर उसे इससे कोई दिक्कत नहीं थी। वो भी अब्दुल के अब्बा को चाचा जान कह कर पुकारता था। चाचा जान के पास एक पुराना स्कूटर था जो अब्दुल और चाचा जान दोनों को बहुत प्यारा था। राम और अब्दुल बारी-बारी से खड़े स्कूटर में आगे बैठ उसे चलाने का नाटक करते थे।
एक बार राम ने अब्दुल से पूछा था कि अगर उसे उसकी स्कूटर या उनकी दोस्ती में से कोई एक चुनना हो तो वह क्या चुनेगा। अब्दुल ने कुछ देर सोचने के बाद कहा था,
“स्कूटर!”, और फिर हँस दिया।
“पागल हो तुम।”, यह कह कर राम भी खिलखिला दिया।
इन्हीं बातों को याद करते हुए राम की आँख कब लग गई पता ही नहीं चला। जब सुबह आँख खुली तो स्टेशन आने ही वाला था।
घर पहुँचते ही राम की बड़ी खातिरदारी हुई―पसंदीदा व्यंजन, ढेरों मिठाइयाँ और घर में लगातार आते जाते रिश्तेदार और पड़ोसी। राम अपने गाँव से पहला बच्चा था जो इतना बड़ा अफ़सर बना था। हर कोई उससे अपने संबंध अच्छे रखना चाहता था। वे रिश्तेदार जिनकी न राम को शकल याद थी न उनके नाम, वो भी ऐसा बर्ताव कर रहे थे मानो राम के सबसे घनिष्ठ हों। जैसे तैसे रिश्तेदारों का जमावड़ा कुछ कम हुआ तो राम ने सोचा की घर से बाहर जाने में ही भलाई है। वो जाने लगा तो माँ ने रोका,
“अरे कहा चल दिया? अभी तो आया है।”
“अरे बहुत खा लिया है माँ, ऐसे ही बाज़ार तक टहल कर आता हूँ, वक्त नहीं लगाऊँगा।”
“ठीक है जल्दी आना, शाम को ताऊजी आएँगे। और सुन कुछ मिठाई ले आ बाहर जा ही रहा है तो।”
“जी ले आऊँगा।”
राम अब्दुल की दुकान की ओर बढ़ गया, सोचा वहीं से खुरचन ले लेगा। अब्दुल ने अपने अब्बा की दुकान संभाल ली थी। जब अब्दुल चार साल का था तब ही उसकी माँ का इंतेक़ाल हो गया था। उसकी एक छोटी बहन थी जिसका खयाल अब्दुल ही रखता था।
अब्दुल हमेशा कहता था – “संभालनी मुझे दुकान ही है, पढ़ लिख के अफ़सर तो तू बनेगा।”
बाज़ार में कई दुकानें नई खुल गयी थी। छोटे छोटे पुराने घरों की जगह अब नयी चमचमाती इमारतों ने ले ली थी। चलते चलते राम ने देखा तो आगे एक दुकान के सामने पुलिस खड़ी थी। जिज्ञासा में राम भी उस ओर बढ़ चला पर उस दुकान के करीब आते ही राम को लगा की मानो उसका खून सूख गया हो। सामने एक छोटी सी दुकान थी जो कालिख़ में लिपटी हुई थी। पुलिसवाले लोगों से पूछताछ कर रहे थे। राम ने बगल में खड़े एक व्यक्ति से पूछा,
“भाईसाहब ये सब कैसा हुआ?”
“अरे ये तो होना ही था।”
“मतलब? मैं कुछ समझा नहीं।”
“लगता है नए आए हो। जिसकी ये दुकान है न, वो गाये का गोस्त बेचता था। लोगों को भनक लग गयी, बस फिर होना क्या था, उसकी दुकान फूँक दिए।”
ये सुनते ही राम के पैरों तले ज़मीन खिसक गयी। उसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था। उसके दिमाग में अब्दुल का चेहरा घूमने लगा और वो वापस घर की ओर चल दिया।
घर पहुँचा तो देखा अंदर ताऊजी बैठे हुए थे।
“अरे खाली हाथ ही लौट आया, तुझे मिठाई लाने बोला था न?” पिताजी ने टोका।
“हाँ वो अब्दुल की―” राम ने कहना चाहा पर लगा की शब्द हलक में ही अटक गए हों।
“अरे अच्छा है वहाँ से मिठाई नहीं लाया,” ताऊजी ने दम्भ भरे स्वर में कहा, “हमें कोई धर्म भ्रष्ट करवाने का शौक थोड़ी है।”
ये बात राम को खल गयी।
“कैसी बातें कर रहे हैं ताऊजी।”
“सही ही तो बोल रहा हूँ, अच्छा है तुम शहर चले गए थे। उस पापी के साथ रहते तो न जाने क्या होता। गौ हत्या सबसे बड़ा पाप है।”
“आपको कोई ग़लतफहमी हुई होगी, अब्दुल ऐसा नहीं है।”
“बेटा तुम शहर में रहे हो, तुम ये सब नहीं समझोगे। इनके बिरादरी के लोग ऐसे ही होते है, इन्हें पहले ही यहाँ से निकाल देना चाहिए था।”
राम से और सहा नहीं गया। वो उठा और तेजी से बाहर की ओर चल दिया। उसके कानों में पिताजी की आवाज़ पड़ती रही जिसे उसने सुन कर भी अनसुना कर दिया। राम अपने घर एक क्षण भी और नहीं रह सकता था। ऐसा लग रहा था मानो दम घुट रहा हो। उसने तय किया की जब तक सच नहीं जान लेता वापस नहीं लौटेगा। अब्दुल के घर जा कर ही पता चलेगा माजरा क्या है।
राम अब्दुल के घर पंहुचा तो पाया की वहाँ ताला लगा पड़ा है। राम हताश सा हो गया, फिर उसने खुद को संभाला। ये हताश होने का नही धीरज रखने का समय था। उसने अब्दुल के पड़ोसी का दरवाज़ा खटखटाया।
दरवाज़ा एक उम्रदराज महिला ने खोला, जो दादी सामान प्रतीत होती थी।
“नमस्ते।”
“नमस्ते बेटा, क्या हुआ?”
“जी आपको पता है, आपके पड़ोसी कहाँ है?”
“कौन, अब्दुल? वह तो गाँव छोड़ कर चला गया।”
“चला गया? कहाँ चला गया?”
“यह से ५० किलोमीटर दूर एक छोटा गाँव है, वहाँ उसकी बहिन मास्टर है। कुछ दिनों पहले वो आ कर ले गयी।”
राम शांत हो गया। इससे पहले की वह कुछ बोलता, दादी बोली,
“तुम अब्दुल के अफ़सर दोस्त हो न?”
“जी, आपको कैसे पता?”
“अरे पूरे मोहल्ले को पता है, अभी कुछ दिनों पहले अब्दुल ने पूरे मोहल्ले में ढिंढोरा पीटा है की उसका दोस्त बड़ा अफ़सर बन गया। ऐसा चहक रहा था मानो खुद की नौकरी लगी हो। बड़ा खुश था उस दिन, सबको खुरचन बाँटे थे। फिर न जाने क्या से क्या हो गया। गाँव वालो ने उसकी दुकान जला डाली और कुछ दिनों बाद उसकी बहिन उसे ले गयी। तुम यही रुको, मैं उसका पता देती हूँ। तुम्हें देख कर बड़ा खुश होगा।”
राम ने दादी का शुक्रिया अदा किया और निकल पड़ा अब्दुल से मिलने। घंटे भर के बस के सफर के बाद वह दूसरे गाँव पहुँचा। लोगों से पता पूछते-पूछते आखिर वो एक छोटे से घर पे आ के रुका। घंटी बजाने के पहले राम का जी थोड़ा मचला। अंदर कैसा दृष्य और क्या सच्चाई उसका इंतज़ार कर रही थी, ये सोच कर वह थोड़ा घबरा सा गया। पर जब इतनी दूर आ ही गया है, तो बिना दोस्त से मिले वापस नहीं जायेगा, यह सोच कर उसने घंटी बजायी।
दरवाज़ा एक कुछ यही २०–२१ साल की लड़की ने खोला।
“जी कहिए, किससे मिलना है?”
“अब्दुल जी यही रहते हैं?”
“जी, आप कौन?”
“जी मैं अब्दुल का दोस्त, राम।”
“रामु भाईजान आप?”
“जी, माफ़ कीजियेगा मैंने आपको नहीं पहचाना।”
“कैसे पहचानेंगे, जब आखिरी दफ़ा देखा था तो बच्ची थी। मैं अब्दुल की छोटी बहन नरगिस।”
राम को यकीन ही नहीं हो रहा था की उसके सामने अब्दुल की बहन खड़ी थी। आखिरी बार जब उसे देखा था तो वह बस बच्ची थी। नरगिस को देख के राम को लगा की वाकई बहुत वक़्त गुज़र गया है।
“अब्दुल कहाँ है?”
“अंदर तो आइए आप। बैठिये। भाईजान ने दर्द की दवाई ली है। अभी बेहोश है, कुछ देर में जाग जायेंगे।”
“क्या मैं उसे देख सकता हूँ?”
“हाँ क्यों नहीं, आइए। जूते बाहर खोल दीजियेगा।”
राम नरगिस के पीछे-पीछे हो लिया। घर आलीशान नहीं था, पर दो लोगों के लिए काफी था। अंदर बिस्तर पर अब्दुल लेटा हुआ था, उसके एक हाथ में प्लास्टर था। पाँव में गहरी चोट और सर पर टाँके थे। उसका चेहरा आधा जल चुका था।
राम से अपने दोस्त की ये हालत देखी नहीं गयी और वो कमरे से बाहर आ गया। उसे लगा जैसे मानो उसका गला सूख रहा हो। नरगिस शायद ये बात भांप गयी और एक गिलास पानी ले आयी।
“ये सब हुआ कैसे?”
“कुछ दिनों पहले भाईजान आपके घर गए थे। तो आपकी माँ ने बताया की आप बड़े अफ़सर हो गए हो। भाईजान बड़े खुश थे, अभी तक तो वो गाँव के दूधवाले से दूध खरीद कर खुरचन बनाते थे, पर हमेशा कहते की दूसरे के दूध में बने खुरचन में वह बात नही। आप भी वापस आने वाले थे तो भाई जान ने तय किया की एक गाय खरीदेंगे। और अपनी गाय के दूध से खुरचन बनाएँगे आपके लिए। कुछ पैसे इधर उधर से जोड़े, और तो और स्कूटर भी बेच दिया। पैसे इकट्ठा करके उन्होंने गाय खरीद ली। वो गाय ले कर वापस लौट ही रहे थे कि न जाने किसने ये अफ़वाह फैला दी की वो गोश्त के लिए गाय को मारने जा रहे हैं। बस फिर गाँव वालों ने दुकान में आग लगा दी और गाय को “बचा” कर ले गये। भाईजान ने उन्हें रोकना चाहा तो सब ने गौहत्या का आरोप लगा कर उन्हें पीट दिया। जब मैं वहाँ पहुँची तो भाईजान को इस हालत में पाया। उसके बाद मैं उन्हें यहाँ ले आयी।”
“पुलिस ने कुछ नहीं किया?”
“पुलिस पूछताछ करने आयी थी। पर वो भी भाईजान को ही शक की निगाहों से देख रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो वो भाईजान को पहले ही आरोपी मान चुके थे।”
नरगिस की आवाज़ की असहायता और निराशा राम को चुभती जा रही थी। उसका मन कचोट रहा था। उसे शर्म भी आ रही थी, क्रोध भी आ रहा था।
तभी कराहने की आवाज़ ने सन्नाटे को तोड़ा।
“लगता है भाईजान उठ गए।”
नरगिस और राम अंदर गए।
“भाईजान देखो कौन आया है आपसे मिलने।”
राम कमरे के दूसरी ओर गया ताकी अब्दुल बिना हिले उसे देख सके।
“रा-राम”, कराहती ज़ुबान से अब्दुल ने बोला। आधा चेहरा जल जाने के कारण अब्दुल को बोलने में तकलीफ़ हो रही थी।
“ये किसने किया? तुम नाम बताओ। मैं तहकीकात करवाऊँगा, एक एक को सज़ा दूँगा।”
“भ-भीड़ का न-नाम और चेहरा नहीं होता द-दोस्त।”
अब्दुल सही ही कह रहा था– भीड़ का, नफरत का, ज़हर का चेहरा नहीं होता।
नरगिस की तरफ चेहरा घुमा कर, अब्दुल कुछ बोलना चाह रहा था,
“डा-डब्बा।”
“अभी लाती हूँ।”
नरगिस एक छोटा डिब्बा ले आयी और राम को दे दिया।
“ये क्या है?”
“तु-तुम्हारे लिए।”
राम ने डिब्बा खोला तो उसमे एक आधा टुकड़ा खुरचन था।
“इ-इतना ही ब-बचा पाया।”
राम ने अब्दुल का हाथ थामा, अब्दुल की आँखों में आँसू थे। राम का साहस भी अब जवाब दे चुका था। वो फूट-फूट कर रोने लगा।
धीरे−धीरे रात और गहरी होती चली गयी।
दो दोस्त थे―एक को समाज ने तोड़ दिया था, एक को उसकी लाचारी ने।
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